बंगाल ब्यूरो 

कोलकाता। पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को करारी शिकस्त देकर तृणमूल कांग्रेस प्रचंड जीत की ओर बढ़ चली है। पार्टी 214 सीटों पर जीत दर्ज करने जा रही है जबकि भारतीय जनता पार्टी केवल 77 सीटों पर सिमट गई है। लोकसभा चुनाव में 18 सीटें जीतने के बाद और मजबूत हुई भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन कायदे से विधानसभा चुनाव में बेहतर होना था लेकिन महज 77 सीटों पर सिमट गई भाजपा की हार के कई कारण है। अगर मतदान प्रतिशत का विश्लेषण किया जाए तो चौथे चरण के बाद जिन सीटों पर वोटिंग हुई है वहां भारतीय जनता पार्टी को करारी शिकस्त मिली है। इस चरण के साथ ही पूरे देश में लोग कोविड-19 महामारी से मरने लगे थे और हाहाकार मची थी लेकिन ठोस कदम उठाने के बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा के अन्य बड़े नेता बंगाल में आकर चुनावी भोंपू बजा रहे थे। इसकी वजह से लोग लगातार गुस्सा जाहिर कर रहे थे लेकिन भाजपा नेता रुके नहीं और अंतिम चरण के पहले तक चुनाव प्रचार करते रहे। इससे बंगाल के मतदाताओं में गुस्सा था और इसका नुकसान भाजपा को होगा जिसकी आशंका पहले से ही जाहिर की जा रही थी। इसके अलावा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बराबर लोकप्रिय चेहरा भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं था। चुनाव से पहले पार्टी के कई बड़े रणनीतिकारों ने सलाह दी थी कि दिलीप घोष को ही सही लेकिन मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट किया जाना चाहिए लेकिन भाजपा ने मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा जिसकी वजह से बंगाल के मतदाताओं के बीच यह संदेश गया कि भाजपा के पास योग्य उम्मीदवार नहीं है।
 
बंगाल विधानसभा चुनाव में इस बार ध्रुवीकरण को बड़े मुद्दे के रूप में देखा जा रहा है। चुनावी माहौल बनने के पहले से ही भाजपा लगातार ममता बनर्जी और तृणमूल पर तुष्टीकरण का आरोप लगाती रही। भाजपा अपनी हर रैली और हर सभा में जय श्री राम के नारे पर हुए विवाद को मुद्दा बनाकर पेश करती रही। फिर तृणमूल भी इससे अछूती नहीं रही। ममता बनर्जी ने पहले सार्वजनिक मंच पर चंडी पाठ किया, फिर अपना गोत्र भी बताया और हरे कृष्ण हरे हरे का नारा दिया।
माना जा रहा था कि बंगाल के हिंदू वोटरों को रिझाने के लिए भाजपा का यह दांव उनके पक्ष में जा सकता है लेकिन आकलन उल्टा साबित हो गया। सीतलकूची फायरिंग और भाजपा नेताओं के बयान ने मुस्लिम वोट को एकजुट कर दिया। हालांकि राजनीतिक विशेषज्ञों के एक धड़े का यह भी मानना है कि बंगाल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सिर्फ माहौल बनाया गया जबकि जमीन पर राजनीतिक ध्रुवीकरण देखने को मिला। इसके अलावा दलबदल करने वाले नेताओं को ममता बनर्जी ने इसे इस तरह से प्रोजेक्ट किया कि उनके अपनों ने ही उन्हेंं धोखा दिया क्योंकि वे खुद बेईमान थे। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि ममता के इस दांव से उन्हेंं फायदा मिला। 

विधानसभा चुनाव से पहले बंगाल में जमीनी आधार बनाने के लिए भाजपा ने दूसरे दलों के नेताओं को पार्टी शामिल कराया और उन्हेंं बड़े पैमाने पर टिकट दिए। हालांकि इसके चलते पार्टी ने अपने नेताओं की नाराजगी मोल ले ली। टिकट बंटवारे के दौरान बंगाल भाजपा यूनिट में असंतोष की खबरें आईं और कई जगह भाजपा के दफ्तर में तोडफ़ोड़ भी हुई। इससे विवश होकर भाजपा को कई बार संशोधन भी करना पड़ा। हालांकि अपनों के बजाय बाहरी नेताओं पर अधिक भरोसा पार्टी की अंदरूनी खटपट की बड़ी वजह बना।
चुनाव नतीजे यह बताने को काफी है कि भाजपा को उनके मौन वोटरों ने वोट नहीं दिया। दरअसल बिहार चुनाव के बाद पीएम मोदी ने देश की महिलाओं को भाजपा का साइलेंट वोटर बताते हुए उन्हेंं विशेष रूप से धन्यवाद दिया लेकिन बंगाल में भाजपा का यह वोटबैंक खिसकता नजर आया। इसकी वजह यह भी मानी जा रही है कि महिलाओं को ममता बनर्जी की पहली पसंद के तौर पर नजर आई।

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