भाषा की संवेदनशीलता मामले में तेजस्वी यादव मीर साबित
पटना । विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया जैसे जैसे आगे बढ़ रही है वैसे वैसे सत्तारूढ़ दल के नेताओं का मानसिक संतुलन भी खराब होने लगा है । सत्तारूढ़ दल के सभी नेता चाहे पीएम या सीएम हों, अभद्र भाषा पर उतर आए हैं। कारण कि जनता उनको हर जगह खदेड़ रही है। काफी पैसा खर्च करने के बाद भी पर्याप्त भीड़ जनसभाओं में नहीं आ रही है । इसे देख उनका पेंच ढीला हो गया है । जनता इन नेताओं जदयू और भाजपा से काफी नाराज है। दूसरी तरफ भाषा की संवेदनशीलता मामले में तेजस्वी यादव मीर साबित हो चुके हैं । बिहार चुनाव का नतीजा तो 10 नवंबर को आएगा लेकिन इसका एक फैसला तो हमारे सामने है. जिसमें तेजस्वी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों पर स्पष्ट रूप से भारी दिखाई दे रहे हैं ।
बिहार की बुद्धिजीवी जनता और राजनीति से सरोकार रखने वाले लोगों की राय है कि जदयू के नेता, मुख्यमंत्री और मंत्री भगाए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री भी गुस्सैल हो गये हैं । 5 साल तक अखबारों का इतना अच्छा मैनेजमेंट किया । अपनों को , चेलों को संपादकों के रूप में बहाल किया, फिर भी जनता नाराज है। हालांकि प्रमुख अखबार अब भी उनकी खुशामद और स्तुति में बड़े-बड़े कसीदे पढ़ रहे हैं । 8-10 कालम की खुशामदी ख़बर लगाई जा रही है । 4 दर्जन बड़े पत्रकार सरकार की बड़ाई में लगे हुए हैं ।
लेकिन जनता सारे चीजों को नजरंदाज किया हुए हैं। उनका सारा मैनेजमेंट फेल होने से वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। प्रधानमंत्री भी मामूली तेजस्वी यादव की शिकायत कर रहे हैं , आलोचना पर उतर आए हैं। वोट की लालच में देश का प्रधानमंत्री कुछ भी बोल सकता है क्या?
मोदी जी ने तेजस्वी यादव के विषय ‘जगल राज के राजकुमार’ कहकर जो कुछ कहा है, क्या उसको प्रधानमंत्री पद की गरिमा के अनुकूल माना जाएगा! दरअसल मोदी जी प्रधानमंत्री बनने के बाद एक मशीन की तरह काम कर रहे हैं. किसी भी तरह लगातार चुनाव जीतने वाली मशीन बन बैठे हैं । मशीनें तो संवेदन शून्य होती ही हैं. उसी तरह हमारे प्रधानमंत्री जी को इस बात की अनुभूति नहीं है कि उनके पद की कुछ मर्यादा होती है. जिनका अनुपालन उस पद की गरिमा की रक्षा करता है ।
मोदी जी के हमले से तेजस्वी यादव का तो कुछ नहीं बिगड़ा है. बल्कि 2014 बाद वे पहले नेता के रूप में उभर आए हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों को अंदर से हिला दिया है । दोनों की भाषा इस बात की गवाही दे रही है. बल्कि मुख्यमंत्री नीतीश जी तो भाषा के संयम मामले में देशभर में जाने जाते थे. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने साबित किया था कि भाषा के संस्कार के मामले में प्रधानमंत्री उनके सामने कहीं नहीं टिकते हैं । लेकिन इस चुनाव में जब उनको एहसास हो रहा है कि कुर्सी जाने वाली है तो भाषा का उनका सारा संस्कार गायब दिखाई दे रहा है और बिल्कुल वे सड़क छाप भाषा पर उतर आए हैं ।