विजय शंकर

पटना: अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय महासचिव , अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वर्किंग ग्रुप के सदस्य व बिहार – ज्ञारखण्ड के प्रभारी और संयुक्त किसान मोर्चा के राष्ट्रीय नेता व पूर्व विधायक राजाराम सिहं ने कहा कि किसान आन्दोलन को जीत के मंजिल तक पहुं चाने वाले किसानों, मजदूरों, छात्र- नौजवानों, महिलाओं , बुध्दिजीवियों, पत्रकारों व व्यापक जनता को धन्यवाद दिया, और किसान आन्दोलन में शहीद किसानों को कोटि- कोटि नमन किया. आगे राजाराम सिहं ने कहा कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के आने के बाद से अब तक कर्ज़ में डूबकर आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद चार लाख से पार कर चुकी है। खेती घाटे में है और किसान कर्ज़ में डूबा हुआ है । और इसलिए मंदसौर गोलीकांड के बाद सैकड़ों किसान संगठनों की एकता के आधार पर खड़े किसान आंदोलन की मुख्य मांग रही है – एक बार सभी किसानों के कर्ज को खत्म करना और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर ( सी2+ 50%) एम एस पी और सभी फसलों की खरीद की गारंटी । इसका वादा सत्ता में आने का दस्तक दे रही भाजपा ने 2014 के अपने चुनाव घोषणापत्र में किया ।
लेकिन सत्ता में आने के बाद अपने दूसरे टर्म में मोदी सरकार ने इस मामले का समाधान ” न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ” के तर्ज पर करने की कोशिश की और खेती का कारपोरेट के हाथों हस्तांतरण कर कृषि संकट के निपटारे के मकसद से किसान विरोधी तीन कानून संविधान व लोकतंत्र की मर्यादा का उलंघन करते हुए ले आई ।

 

उन्होंने कहा कि पंजाब व किसान आंदोलन की दृढ़ता, पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान के किसानों की बेमिसाल एकजुटता व संघर्ष के साथ ही बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित संपूर्ण देश के किसानों, मजदूरों, छात्र-युवाओं, महिलाओं व नागरिकों के सहयोग व सहानुभूति, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय समर्थन से संपृक्त इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के समक्ष मोदी सरकार को घुटने टेकने पड़े और अफरातफरी में पारित किए गए तीनों कानूनों को वापस लेना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट पहले ही इन कानूनों पर रोक लगा चुका था।
यह बात रेखांकित करने वाली है कि देश के अन्य संसाधनों को एक के बाद एक की निजी हाथों में बिक्री के साथ देश की खेती को भी कारपोरेट के हाथों बिक्री देश के किसानों व आम देशवासियों को कत्तई मंजूर नहीं थी । अपने युवा पीढ़ी की मर्मांतक बेरोजगारी, बढ़ता कृषि लागत व अकूत मंहगाई की हालत में किसानों की पीठ दीवार से सट चुकी थी और किसान ” करो या मरो” की लड़ाई के लिए विवश और संकल्पित था ।

इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन की जीत और तीन कृषि कानूनों की वापसी का यह साफ संदेश है कि अब कारपोरेट परस्त नीतियों की जगह किसान व जन पक्षीय समग्र नीति निर्माण हो और लोकतंत्र की तमाम नियामक संस्थाएं इस पर अमल करें और देश व राज्य की सत्ताओं पर ऐसे ही दलों या व्यक्तियों को गद्दी नशीन किया जाए जो इसे अमलीजामा पहना सकें ।
बीज, कीटनाशक, खाद, जल संसाधन, कृषि बाजार आदि को प्रभावित करने वाले अमेरिका के साथ सम्पन्न कृषि विषयक ज्ञान उपक्रम समझौते को ‘अन डू’ करने से लेकर खेती को लाभकारी बनाने, सिंचाई व जल संसाधन को सुदृढ़ बनाने, कृषि भूमि का उपयोग मुख्यतया खेती के लिए करने, कृषि से जुड़े किसानों, कृषि मजदूरों, बटाईदारों,पशुपालकों, आदिवासियों आदि की बेहतर जीवन स्थिति आदि सवालों पर किसान आंदोलन छेड़ना होगा और सरकारों से अपनी मांग मनवाने के लिए आगे बढ़ना होगा ।
भाजपा और उसकी मोदी-जोगी-खटृर-चौहान सरकारों से इन किसान विरोधी कानूनों को लाने , किसान आंदोलन पर बर्बर तानाशाही दमन ढाने, किसान आंदोलन को बदनाम करने और फूट डालने,दंगा कराने की साजिशों के संबंध में सवाल पूछना ही होगा । आखिर वह सिंघू-गाजीपुर-टिकरी बार्डर से लेकर करनाल, लखीमपुर तक शांतिपूर्ण किसान आन्दोलनकारीओं पर वो इतना हमलावर क्यूं थी, किसानों का लखीमपुर में जन संहार क्यूं रचा और इसके कर्ताधर्ताओं को सत्ता का संरक्षण क्यों मिला हुआ है ? आदि-आदि ।
कुल मिलाकर इस महान किसान आंदोलन को भारत में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर खड़े भारतीय संविधान व लोगों के अधिकारों के लिए जनता के संघर्षों के साथ खड़ा रहने की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करना होगा।

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