● भारत को पुलिस राज में बदलने की साजिश, संस्थागत स्थायी आपातकाल का खतरा

● कानूनों को तत्काल रद्द करने की मांग पर माले का देशव्यापी प्रतिवाद

● कानूनों को संसद में फ़िर से पेश करे सरकार, ताकि इनकी सही जांच-परख हो सके

● भारत के न्याय ढांचे में सुधार की जरूरत, लेकिन तीन फौजदारी कानून उसका जवाब नहीं

● देशव्यापी प्रतिवाद के तहत पटना सहित पूरे राज्य में प्रदर्शन

vijay shankar

पटना 1 जुलाई : आज से लागू हो रहे मोदी सरकार के नए क्रिमिनल कोड के खिलाफ़ देशव्यापी प्रतिवाद दिवस के तहत बिहार की राजधानी पटना सहित राज्य के विभिन्न जिला मुख्यालयों में भाकपा-माले की ओर से प्रतिरोध मार्च निकाले गए.

राजधानी पटना में जीपीओ गोलबंर से बुद्ध स्मृति पार्क तक मार्च निकला और फिर प्रतिरोध सभा का आयोजन हुआ.

पटना के अलावा दरभंगा, पटना ग्रामीण के दुल्हिनबाजार, बिहटा, नौबतपुर, फतुहा, फुलवारीशरीफ; आरा, संदेश बाजार, खगड़िया, सुपौल, मोतिहारी, अरवल, नवादा, सिवान, बक्सर, भागलपुर आदि जगहों पर प्रतिवाद आयोजित किए गए.

राजधानी पटना में आयोजित मार्च का नेतृत्व माले राज्य सचिव कुणाल, ऐपवा महासचिव मीना तिवारी, विधान पार्षद शशि यादव, आइलाज की बिहार संयोजक मंजू शर्मा, किसान नेता शंभूनाथ मेहता, इंसाफ मंच के गालिब, एआइपीएफ के कमलेश शर्मा, रामबलि प्रसाद, जितेन्द्र कुमार, मुर्तजा अली, राजेन्द्र पटेल, डॉ. प्रकाश, अनिल अंशुमन, आइसा राज्य सचिव सबीर कुमार आदि नेताओं ने किया. प्रतिवाद सभा का संचालन पटना महानगर कमिटी के सचिव अभ्युदय ने किया.

माले राज्य सचिव कुणाल ने प्रतिवाद सभा को संबोधित करते हुए कहा कि नए आपराधिक कानून भारत को एक पुलिस राज्य में बदल देंगे. इसे हम एक संस्थागत स्थायी आपातकाल कह सकते हैं जहां पुलिस के पास मनमानी शक्तियां होंगी और असहमत नागरिकों पर जेल जाने का स्थायी खतरा होगा.

नए क्रिमिनल कोड नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों का हनन करने और सरकारी दमन बढ़ाने के औजार मात्र हैं. इन पर तत्काल रोक लगनी चाहिए. ये कानून अंग्रेजों के जमाने से भी ज्यादा खतरनाक हैं. हमने राष्ट्रपति से इन कानूनों को रद्द करने की मांग की है.

आगे कहा कि समाज के विभिन्न तबकों और न्याय पसंद नागरिकों के बीच इन तीन नए फौजदारी संहिताओं – भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को लेकर गम्भीर चिंता हैं. इन तीनों संहिताओं में (जो क्रमशः भारतीय दंड संहिता 1860, दंड प्रक्रिया सहित 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 का स्थान लेंगी) मूलभूत नागरिक स्वतंत्रता – जैसे बोलने, हक-अधिकार के लिए आवाज उठाने, प्रदर्शन की स्वतंत्रता और अन्य नागरिक अधिकारों को अपराध की श्रेणी में लाने वाले कठोर कानूनों का प्रावधान है. भूख हड़ताल को भी अपराध बना दिया गया है. जबकि नए नामकरण के साथ कुख्यात राजद्रोह कानून भारतीय दंड संहिता आईपीसी की धारा 124 ए को कायम रखा गया है.

अन्य वक्ताओं ने कहा कि इन कानूनों के जरिए पुलिस को अनियंत्रित शक्तियां दे दी गई हैं जिनका देश में नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. नागरिक सुरक्षा संहिता कानून के तहत अब जनता के सवालों को लेकर सरकार के खिलाफ आवाज उठाना भी जुर्म हो गया है. ये प्रावधान जनता के अधिकार और किसी व्यक्ति की मानवीय गरिमा के हनन के अलावा कुछ नहीं है. ये कानून पुलिस द्वारा नागरिकों को निशाना बनाए जाने को आसान करता है.

सबसे गंभीर यह है कि पुलिस अभिरक्षा की अवधि को वर्तमान 15 दिन से बढ़ाकर 60 या 90 दिन कर दिया गया है. किसी गिरफ्तार आरोपी का नाम, पता और अपराध की प्रवृत्ति का पुलिस स्टेशन और जिला मुख्यालय पर भौतिक एवं डिजिटल प्रदर्शन किया जाएगा. इसका मतलब है भाजपा सरकार जनता की आवाज को खामोश करने के लिए दमन और तेज करना चाहती है.

नेताओं ने कहा कि फौजदारी मामलों में पहले से ही पूरे भारत में 4 करोड़ मुकदमे लंबित हैं. उसके बीच में इन तीन कानूनों को लागू करना दो समानांतर कानूनी व्यवस्थाएं उत्पन्न करेगा, जिससे बैकलॉग और बढ़ेगा तथा पहले से अत्यधिक बोझ झेल रहे हमारे न्यायिक तंत्र पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत के न्याय ढांचे को सुधार की अधिक जरूरत है लेकिन तीन फौजदारी कानून इसका जवाब नहीं है. ये अकारण ही हड़बड़ी में बिना चर्चा या संसदीय परख के ऐसे समय में पास किए गए जब 146 विपक्षी सांसदों को निलंबित कर दिया गया था.

इसलिए जरूरी है कि केंद्र सरकार इन तीन फौजदारी कानून को लागू करने का निर्णय स्थगित करे और उन्हें संसद में फ़िर से पेश करे ताकि इनकी सही जांच-परख हो सके और इन पर चर्चा हो सके.

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