7 अक्टूबर दुर्गा भाभी की जयंती : याद की गई शहीद भगत सिंह के दुर्गा भाभी

देश की प्रगति का अद्भुत विजन उनके पास था

विश्वपति 

पटना। दुर्गा भाभी भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों की प्रमुख सहयोगी थीं।
18 दिसम्बर 1828 को भगत सिंह ने इन्हीं दुर्गा भाभी के साथ वेश बदल कर कलकत्ता-मेल से यात्रा की थी। दुर्गा भाभी की जयंती पर आज यहां उनको भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई और उनके बताए रास्ते पर चलने का संकल्प लिया गया ।
गुरुवार को यहां आल हिंद मजदूर सभा के सम्मेलन में वक्ताओं ने एक स्वर से कहा कि दुर्गा भाभी सरीखी बहादुर और प्रगतिशील महिला की आज देश को जरूरत है। इस महिला के सिद्धांतों और विजन पर काम करने की जरूरत है दुर्गा भाभी ने हमेशा कहा कि देश की उन्नति के लिए बेरोजगारी दूर करने और लघु उद्योगों का जाल बिछाये जाने की जरूरत है।
कहा कि दुर्गा भाभी क्रांतिकारी भगवती चरण बोहरा की धर्मपत्नी थीं।
दुर्गा भाभी का जन्म 7अक्टूबर 1907 को शहजादपुर ग्राम अब कौशाम्बी जिला में पंडित बांके बिहारी के यहां हुआ। इनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे और इनके बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौन जिला में थानेदार के पद पर तैनात थे।
इनके दादा पं॰ शिवशंकर शहजादपुर में जमींदार थे जिन्होंने बचपन से ही दुर्गा भाभी के सभी बातों को पूर्ण करते थे।
दस वर्ष की अल्प आयु में ही इनका विवाह लाहौर के भगवती चरण बोहरा के साथ हो गया। इनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊंचे पद पर तैनात थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें राय साहब का खिताब दिया था।
भगवती चरण बोहरा राय साहब का पुत्र होने के बावजूद अंग्रेजों की दासता से देश को मुक्त कराना चाहते थे। वे क्रांतिकारी संगठन के प्रचार सचिव थे। वर्ष 1920 में पिता जी की मृत्यु के पश्चात भगवती चरण वोहरा खुलकर क्रांति में आ गए और उनकी पत्‍‌नी दुर्गा भाभी ने भी पूर्ण रूप से सहयोग किया।
सन् 1923 में भगवती चरण वोहरा ने नेशनल कालेज बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की और दुर्गा भाभी ने प्रभाकर की डिग्री हासिल की। दुर्गा भाभी का मायका व ससुराल दोनों पक्ष संपन्न था। ससुर शिवचरण जी ने दुर्गा भाभी को 40 हजार व पिता बांके बिहारी ने पांच हजार रुपये संकट के दिनों में काम आने के लिए दिए थे। लेकिन इस दंपती ने इन पैसों का उपयोग क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश को आजाद कराने में उपयोग किया।
मार्च 1926 में भगवती चरण वोहरा व भगत सिंह ने संयुक्त रूप से नौजवान भारत सभा का प्रारूप तैयार किया और रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर इसकी स्थापना की।
सैकड़ों नौजवानों ने देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों का बलिदान वेदी पर चढ़ाने की शपथ ली। भगत सिंह व भगवती चरण वोहरा सहित सदस्यों ने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए।
28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय वोहरा जी शहीद हो गए। उनके शहीद होने के बावजूद दुर्गा भाभी साथी क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहीं।
9 अक्टूबर 1930 को दुर्गा भाभी ने गवर्नर हैली पर गोली चला दी थी जिसमें गवर्नर हैली तो बच गया लेकिन सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी ने गोली मारी थी जिसके परिणाम स्वरूप अंग्रेज पुलिस इनके पीछे पड़ गई।
मुंबई के एक फ्लैट से दुर्गा भाभी व साथी यशपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। दुर्गा भाभी का काम साथी क्रांतिकारियों के लिए राजस्थान से पिस्तौल लाना व ले जाना था।
चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते वक्त जिस पिस्तौल से खुद को गोली मारी थी, उसे दुर्गा भाभी ने ही लाकर उनको दी थी। उस समय भी दुर्गा भाभी उनके साथ ही थीं। उन्होंने पिस्तौल चलाने की ट्रेनिंग लाहौर व कानपुर में ली थी।
भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त जब केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने जाने लगे तो दुर्गा भाभी व सुशीला मोहन ने अपनी बांहें काट कर अपने रक्त से दोनों लोगों को तिलक लगाकर विदा किया था। असेंबली में बम फेंकने के बाद इन लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया तथा फांसी दे दी गई।
साथी क्रांतिकारियों के शहीद हो जाने के बाद दुर्गा भाभी एकदम अकेली पड़ गई।
वह अपने पांच वर्षीय पुत्र शचींद्र को शिक्षा दिलाने की व्यवस्था करने के उद्देश्य से वह साहस कर दिल्ली चली गई। जहां पर पुलिस उन्हें बराबर परेशान करती रहीं। दुर्गा भाभी उसके बाद दिल्ली से लाहौर चली गई, जहां पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और तीन वर्ष तक नजरबंद रखा। फरारी, गिरफ्तारी व रिहाई का यह सिलसिला 1931 से 1935 तक चलता रहा।
अंत में लाहौर से जिलाबदर किए जाने के बाद 1935 में गाजियाबाद में प्यारेलाल कन्या विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी करने लगी और कुछ समय बाद पुन: दिल्ली चली गई और कांग्रेस में काम करने लगीं।
कांग्रेस का जीवन रास न आने के कारण उन्होंने 1937 में छोड़ दिया। 1939 में इन्होंने मद्रास जाकर मारिया मांटेसरी से मांटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लिया तथा 1940 में लखनऊ में कैंट रोड के (नजीराबाद) एक निजी मकान में सिर्फ पांच बच्चों के साथ मांटेसरी विद्यालय खोला।
आज भी यह विद्यालय लखनऊ में मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है। 14 अक्टूबर 1999 को गाजियाबाद में उन्होंने सबसे नाता तोड़ते हुए इस दुनिया से अलविदा कर लिया।
इसके पूर्व वे देश के सरकारों के कामकाज से बिल्कुल खुश नहीं थीं। देश का बंटवारा और बल्कि देश में बढ़ती संप्रदायिकता से भी दुखी रहा करती थीं।
साल 1990 के राम मंदिर आंदोलन को उन्होंने गैरजरूरी बताया था और कहा था कि हिंदू मुस्लिम की एकता और परस्पर सहमति से ही मंदिर बनना चाहिए । लेकिन मंदिर के साथ-साथ बेरोजगारी दूर करने के लिए उत्तर प्रदेश एवं अयोध्या में कल कारखानों का जाल भी बिछाना जाना चाहिए। हर दस कारखाने बनाए जाने के बाद ही कोई एक मंदिर या मस्जिद बनाई जानी चाहिए। हर राज्य में 10 बड़े कारखाने ,10 स्कूल, 10 कॉलेज, 10 औद्योगिक संस्थान इन का बनाया जाना सबसे जरूरी है।
सम्मेलन में कहा गया कि दुर्गा भाभी एवं शहीद भगत सिंह के बताए रास्ते पर चलने की जरूरत आज देश को फिर महसूस हो रही है। देशवासियों को उनके बताए रास्ते पर ही संगठित होना होगा। जाति धर्म का भेदभाव भूलकर एकजुट होकर तानाशाहों का मुकाबला करना होगा।

By admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *