डॉ अशोक प्रियदर्शी

(स्मृति शेष -आज 15 जनवरी को डॉ. चतुर्भुज की जयंती पर विशेष )
हिन्दी नाट्य आन्दोलन के कर्मठ योद्धा डॉ. चतुर्भुज का जन्म 15 जनवरी, 1928 ई. को नालन्दा जिलान्तर्गत बिहार शरीफ के महलपर मुहल्ले में हुआ था । इनके पिता प्रयाग नारायण बख्तियारपुर-राजगीर मार्टिन रेल में स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत थे । फारसी, कैथी भाषाओं के जानकार प्रयाग नारायण की रूचि नाटकों में भी थी । बख्तियारपुर में पोस्टिंग होने पर वहां की प्रतिष्ठित नाट्य संस्था ‘बिहारी क्लब’ से उनका जुड़ाव था । वे उस संस्था के वरीय सम्मानित सदस्यों में एक थे । नाटक के संबन्ध में उनसे महत्वपूर्ण परामर्श लिया जाता था । सरस्वती पूजा, दशहरा से छठ पूजा तक प्रतिवर्ष नाटकों का दौर रहता था ।

छोटा बालक चतुर्भुज अपने पिता की अंगुली पकड़ कर प्रतिदिन पूर्वाभ्यास में जाते और देररात लौटते समय वे अपने मन की बात पिता से शेयर करते । नाटक के संबन्ध में भी वे अनगिनत प्रश्न करते और पिता प्रयाग नारायण उनके प्रश्नों का जवाब देते । प्रदर्शित पारसी नाटकों का निर्देशन करने के लिए पटना के चर्चित नाट्य निर्देशक और अनुशासनप्रिय त्रिभुवन सिन्हा को आमंत्रित किया जाता था । चतुर्भुज जी ने बताया कि वे अपने पिता से ही कैथी हिन्दी लिखना और पढ़ना सीखे और उन्होंने ही अपने पिताजी को हिन्दी लिखना और पढ़ना सिखाया । चतुर्भुज जी बिहारी क्लब के अपने वरीय कलाकारों का सम्मान करते रहे और नाटक की गूढ़ बातों का गहराई से अध्ययन करते रहे । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा बख्तियारपुरऔर खुशरूपुर के स्कूलों में हुई । बिहारी क्लब संस्था में प्रदर्शित पारसी नाटकों में महिला चरित्र में अभिनय से शुरूआत हुई । रणधीर साहित्यालंकार, हरेकृष्ण प्रेमी आदि लेखकों के उपलब्ध सभी पारसी नाटकों का मंचन बिहारी क्लब ने कर लिया तब युवा चतुर्भुज ने अपना पहला नाटक ‘मेघनाद’ उनके बीच रखा । नाट्य लेखन की शुरूआत भी अब हो गयी थी ।
रेल-सेवा, नव नालन्दा महाविहार और आकाशवाणी से 1986 में सेवानिवृति के बादपूर्ण-रूपेण जन-संचार, पत्रकारिता और नाट्य प्रशिक्षण करते हुए डॉ. चतुर्भुज की लेखन-कला निर्वाध रूप से गतिशील रही । उत्कृष्ट डिग्री पाने का मूल उद्देश्य होता है-प्रोमोशन, वेतनवृदधि, उत्कृष्ट नौकरी आदि । लेकिन डॉ. चतुर्भुज को अध्ययनशीलता की बीमारी ऐसी रही कि उन्होंने बिना किसी कॉलेज में अध्ययन किए प्राईवेट से आई.ए., बी.ए. और एम.ए. की परीक्षाएं पास की । संघ लोकसेवा आयोग से चयनित होकर आकाशवाणी, पटना में कार्यक्रम अधिशासी के रूप में प्रारंभिक नौकरी शुरू की ।

फिर आकाशवाणी रांची, भागलपुर और दरभंगा केन्द्रों पर भी कार्यरत रहे । वे जहां भी रहे रंगमंच की गतिविधियों को बनाए रखा । आकाशवाणी दरभंगा के केन्द्र निदेशक पद से 1986 ई. में रिटायरमेंट तक डॉ. चतुर्भुज की लगभग 50 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी । कई विश्वविद्यालयों से उनके व्यक्तित्वऔर कृतित्व पर अनेक छात्रों ने एम. फिल और पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त कर ली थी । रिटायरमेंट के बाद भी उनकी लेखनी चलती रही और तीन ऐतिहासिक उपन्यास लिखा । उन्होंने पी-एचडी. की डिग्री मगध विश्वविद्यालय से अपने रिटायरमेंट के दस वर्षों बाद प्राप्त की 1996 ई. में ।
नाटक-रंगमंच डॉ. चतुर्भुज के जीवन की सदैव छाया बनी रही । इसी विधा ने उन्हें अध्ययन शील बनाए रखा । नाटक, कहानी, लेख औरउपन्यास का लेखन कराता रहा । बौध साहित्य, इतिहास, नाट्य शास्त्र, पत्रकारिता और जन-संचार का विशेषज्ञ बनाए रखा ।जब कभी बुक फेयर में उनके साथ जाता था तब देखता था कि पुस्तकों की खरीद के साथ उस प्रकाशन का कैटलॉग वे अवश्य लेते थे । खरीदी पुस्तकों के पठन से पूर्व वे प्राप्त कैटलॉग में छपी पुस्तकों पर निशान लगाते थे । बाद में ऑर्डर कर कैटलॉग की चिह्नित पुस्तकों को डाक से मंगाते थे । डॉ. चतुर्भुज से मेरी निकटता रहने के कारणजानकारी मिली कि उनके लिखने-पढ़ने का समय तब होता था जब घर के सभीलोग खा-पीकर सो जाते थे । रात दस बजे के बाद से । लेखन के लिए डॉ. चतुर्भुज ने कभी भी कुर्सी-टेबुल को काम में नहीं लाया । हमेशा जमीन पर, चटाई बिछाकर एक छोटा पोर्टेबुल टाईपराईटर रख, वे रात्रि में एक से डेढ़ बजे तक लेखन करते थे । यह सिलसिला लगभग प्रतिदिन का होता था । लेखन के समय उनके चेहरे पर कोई प्रशासनिक अधिकारी या प्रशिक्षक की रेखा नहीं झलकती थी, वे सिर्फ शिष्य या पाठकही नजर आते थे ।
पारसी नाटकों से यात्रा प्रारम्भ कर, हिन्दी नाटक, नुक्कड़ और टेरिस थियेटर के उतार-चढ़ाव को डॉ. चतुर्भुज ने काफी निकट से देखा । अभिनेताओं, आयोजकों और निर्देशकों की समस्याओं को महसूसा था । वे कहते थे नाटक एक ऐसा नशा है जिससे जीवनभर मुक्ति मिल पाना कठिन है । उनके जीवन में नाटक एक संजीवनी की तरह मार्गदर्शक बना रहा । वे कहते थे नाटक और रंगमंच एक ऐसी विद्या है जिसमें टेलरिंग, कास्ठकला, कारपेन्टरी, लाईटिंग, मेकअप, सेटनिर्माण, जन-संपर्क आदि सारी कलाएं सन्निहित हैं । जिस तरह गर्भधरिणी माँ अनभिज्ञ होती है किजन्म लेने वाली उसकी संतान समाज सुधारक होगा या विघ्वंसक, ठीक उसी तरह लेखक की स्थिति होती है । डॉ. चतुर्भुज बताते थे-नाटक के चरित्र लेखक के मस्तिष्क में बनते हैं-पुष्टता के बाद वह चरित्र कलम के माध्यम से कागज के पन्नों पर जन्म लेता है । संवाद के माध्यम से लेखक उस चरित्र का लालन-पालन करता है । लेकिन कभी-कभी लेखक वहाँ असमर्थ हो जाता है कि जिस चरित्र को उसने उभारने का प्रयास किया, वह चरित्र संवाद के माध्यम से उभर न सका और दूसरा चरित्र संवाद में उभर गया ।
‘कुँवर सिंह’ नाटक की रचना उन्होंने 1953 में की । नाटक के पहले दृश्य में 1857 के पटना के क्रांतिकारी पीरअली के चरित्र को रखा है जिसकी चर्चा तत्कालीन इतिहासकारों ने चार-छह लाईन से अध्कि नहीं की है । कालान्तर में स्थिति ऐसी बनी कि उन्हें पीरअली पर एक स्वतन्त्रा नाटक की रचना करनी पड़ी । एक वेदना उनके जीवन के अन्तिम क्षण तक बनी रही । वे चाहते थे कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर एक पूर्णकालिक नाटक लिखना । काफी अध्ययन के बाद जब उन्होंने लिखा, तब वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम न होकर ‘मेघनाद’ बन गया । कई वर्षों बाद 1980 के आस-पास जब वे फिर से विभिन्न भाषा के रामायणों का अध्ययन कर लिखा, तब उस नाटक का हीरो ‘पुरुषोत्तम राम’ न बन सका, और हो गया मुख्य नायक ‘रावण’।
नयी पीढ़ी को नाटक/ रंगमंच से जोड़ कर, उन्हें अनुशासित करना, उन्हें उचित सम्मान दिलाना डॉ. चतुर्भुज का लक्ष्य रहता था । 1952 ई. में रेल कर्मचारियों के सहयोग से बख्तियारपुर में स्थापित नाट्य संस्था मगध आर्टिस्ट्स (मगध् कलाकार) का स्थायी मंच डॉ. चतुर्भुज की प्रयोगशाला रही । कलाकारों को सामने रखकर नाट्य लेखन के बाद वे संस्था के कलाकारों को लेकर नाट्य प्रदर्शन करते थे । प्रदर्शन में झलकी त्रुटियों का संशोधन कर ही नाटकों का प्रकाशन कराते थे । डॉ. चतुर्भुज का बड़प्पन ही माना जाएगा कि संस्था के दूसरे कनिष्ठ रंगकर्मी को निर्देशन का दायित्व सौंपकर उसकी निगरानी करते रहते । भगवान प्रसाद, भागवत प्रसाद श्रीवास्तव, अनन्त कुमार (डा, चतुर्भुज के छोटे भाई) , डॉ0 अशोक प्रियदर्शी (डा . चतुर्भुज के बड़े पुत्र), हंसराज सिंह (कलाकार) , जावेद रहमान आदि ऐसे ही निर्देशक रहे हैं जिनके निर्देशन में डॉ. चतुर्भुज जैसे नाटककार ने ईमानदारी से भूमिकाएं की । उनका कथन था कि एक ही नाटक एक निर्देशक अपनी तरह से नाट्य-प्रस्तुति करता है तो दूसरा निर्देशक उसी नाटक का निर्देशन अलग दृष्टि से करेगा । निर्देशक के मन के अनुकूल ही चरित्र निर्वहन कर कलाकार अपनी पहचान बना सकता है।
नाटक को रोजी-रोटी से जोड़ने के लिए डॉ. चतुर्भुज सदैव संघर्षशील रहे । आकाशवाणी दरभंगा में रहते हुए जब एक समारोह में उनकी भेंट ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति, डॉ. सी. डी. सिंह से हुई, तब उन्होंने उपकुलपति को मगध कलाकार के पैड पर एक प्रस्ताव दिया-विश्वविद्यालय में नाट्यशास्त्र विषय की स्वतन्त्र पढ़ाई शुरू की जाए । डॉ. चतुर्भुज की लेखनी और नाट्य संस्था मगध कलाकार से वे पूर्व परिचित थे । ल.ना. मिथिला विश्वविद्यालय के उपकुलपति ने तुरत उसी वर्ष से एम.ए. स्तर तक नाट्यशास्त्र के पढ़ाई की स्वीकृति दे दी और सीनेट से पास भी करा लिया । उस समय तक विश्वविद्यालय स्तर पर नाट्यशास्त्र पर कहीं से कोई डिग्री देने की परम्परा नहीं थी । जहाँ नाट्यशास्त्र की पढ़ाई भी होती थी, वहाँ से डिप्लोमा दी जाती थी । सेवानिवृत होने के बाद लगभग ढाई वर्षोंतक डॉ. चतुर्भुज वहाँ प्रथमनाट्य शिक्षक बन कर रहे । इसी की प्रेरणा से बी.एन. मंडलविश्वविद्यालय में नाट्यशास्त्र की स्वतन्त्र पढ़ाई शुरू की गयी । इन्टरमीडिएट कॉउन्सिल में भी नाट्यशास्त्र एक विषय के रूप में स्वीकृत किया गया । शिक्षण कार्य के बाद जब वे पटना आए तब एक बात उनके हृदय को बराबर आन्दोलित करता रहा किजितना नाट्य विद्यार्थियों को उन्होंने लिखाया था उससे अध्कि की जानकारी तो छात्रों को मिल नहीं पाएगी ! क्योंकि हिन्दी में कोई ऐसी पुस्तक नहीं है । रंगकर्मियों को ध्यान में रख कर डॉ चतुर्भुज दो पुस्तकें लिख कर, उन्हें देना चाहते थे । भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की ओर से उन्हें सीनियर फेलोशिप दिया गया और उन्होंने पहली पुस्तक लिखी- ‘भारतीय और विदेशी भाषाओं के नाटकों का इतिहास’।
मेहनत करने वालों को भगवान भी मार्ग प्रशस्त करते है । जब लेखन पूरा हो गया । तो पाण्डुलिपि संस्कृति मंत्रालय भेजी गयी जिसके बाद वहां से स्वीकृति भी प्राप्त हुई । अन्य रंगकर्मियों और शोधार्थी उस लेखनी का लाभ लेने से वंचित ही थे । डॉ. चतुर्भुज चिन्तन करते रहे । कालान्तर में उन्होंने उस पाण्डुलिपि में कुछ और चैप्टरजोड़ कर पाण्डुलिपि दिल्ली के प्रकाशक के पास भेजने की तैयारी की । ए.एन. कॉलेज, पटना के विभागाध्यक्ष डॉ. कपिलदेव सिंह की नजर इस पाण्डुलिपि पर पड़ी । उन्होंने परामर्श दिया कि इसी विषय परआप पी-एचडी की डिग्री ले लें । परिणामतः ‘प्रमुख भारतीय भाषाओं के नाटक और प्राचीन यूनानी नाटक: एक अध्ययन’ विषय पर डॉ. चतुर्भुज को 1996 ई. में पी-एचडी. की डिग्री मिली । रंगकर्मियों के लिए दूसरी पुस्तक वे लिख रहे थे-‘नाट्य शिल्प विज्ञान’ जिसमें उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर नाटकों का चयन, चरित्र के अनुसार कलाकारों का चयन, निर्देशन, सेट निर्माण, लाईटिंग की महत्ता, मेकअप, ड्रेस डिजायनिंग, दर्शकों तक नाटकों का प्रचार-प्रसार, जन सम्पर्क, नाटकों की समीक्षा आदि का समावेश कर रहे थे । लगभग डेढ़ सौ पृष्ठों में कई चैप्टर उन्होंने लिखा भी लेकिन उसे पूरा नहीं कर सके ।
मगध कलाकार औरडॉ. चतुर्भुज की लेखनी ही मानी जाएगी कि कर्पूरी ठाकुर के मुख्य मंत्रित्वकाल में उन्होंने नाट्य रंगमंच को मनोरंजन कर से मुक्ति दिलायी, गाँधी मैदान, पटना में गणतन्त्र दिवस के अवसर पर झंडोत्तोलन और परेड के साथ 1979 से झांकियों का प्रदर्शन प्रारम्भ किया गया । नाटक को रोजी-रोटी से जोड़ने के लिए एम.ए. स्तर पर नाट्यशास्त्र की पढ़ाई प्रारम्भ करायी ।
डॉ. चतुर्भुज ने अपनी प्रयोगशाला मगध कलाकार से जितने भी प्रदर्शन किए उनमें अधिकांश प्रदर्शन किसी न किसी कल्याणकारी कार्य के लिए ही किए गये-उनमें प्रमुख हैं-नेशनल डिफेन्सप फंड (18 जनवरी, 1966 रेलवे सिनेमा हॉल, खगौल), श्रीचन्द उदासीन महाविद्यालय, हिलसा के सहायतार्थ (कॉलेज परिसर,में 22, 23 फरवरी, 1970), राँची समाज कल्याण समिति के सहायतार्थ, (संत जेवियर स्कूल, डोराण्डा हॉल में 12, 13 जुलाई, 1971), जमुई स्टेडियम के सहायतार्थ, मुख्यमंत्री – बाढ़ राहत कोष (झुमरी तिलैया, रामगढ़, हजारीबाग सिनेमा हॉल, नवम्बर, 1970), महिला महाविद्यालय, खगोल के सहायतार्थ, द्वितीय कांफ्रेंस इंटरनेशनल एसोसिएशन आफ बुद्धिस्ट स्टडीज , नालंदा (19 जनवरी ‘1980 ) , नव नालंदा महाविहार में दीक्षांत समारोह के मौके पर (6 फरवरी 1977) को, आदि उनके कल्याणकारी कार्य की महत्वपूर्ण बानगी है ।

नाट्य प्रस्तुति एक टीम वर्क है । कोई भी कलाकार किसी कारण से हट गया तो आपका नाटक कभी सफल नहीं होगा । डॉ. चतुर्भुज सदैव अनुशासन प्रिय, समय के पाबन्द और शराब सेवन के विरोधी रहे । नाट्य प्रस्तुति में वे पात्रों का वितरण कलाकारों के बीच कर देते थे । लेकिन दो-तीन ऐसे लोग को हमेशा तैयार रखते थे जो उनके संकेत पाकर तुरत मंच परअभिनय करने के लिए तैयार होता था । कई बार ऐसी घटनाएं घटी भी । मेकअप लेकर ड्रेस पहनने के बाद जब एक कलाकार (अनुज, चक्रधर) के निकट गये और पाया कि उसने शराब पी रखी है । तुरत उनसे ड्रेस उतरवाकर दूसरे कलाकार को ड्रेस पहनने का आदेश दे दिया । 1979 मेंजब भारतीय नृत्य कला मंदिर में प्रदर्शन हेतु ‘मुद्राराक्षस’ के सेट निर्माण में मैं लगा था तब लगभग 4 बजे डॉ. चतुर्भुज का आदेश मिला, तुम्हें अमुक चरित्र का अभिनय करना है । सेटनिर्माण का काम छोड़ कर पात्र की भूमिका गहराई से याद कर लो । छह बजे महामहिम, बिहार के हाथों नाटक का उद्घाटन होना था । ऐसा ही हुआ। डॉ. चतुर्भुज को अपनी आंखों जितना निकट से देखा, मैं आज भी उनके प्रशिक्षण का स्मरण करता हूँ । सरकारी सेवा में रहते हुए समय का हमने सदैव सम्मान किया । नाट्य प्रशिक्षणालय मेंअध्यापन हेतु जब भी मैं जाता हूँ तब समय की पाबन्दी पर विशेष बल देता हूँ । समय कीमती है । अगर आप इसका सम्मान करेंगे तब यह भी समाज की नजरों में आपको सम्मान दिलायगा । समाज में आपकी प्रतिष्ठा बनी रहेगी । आपभी किसी एक कार्य को केन्द्रबिन्दु बना, उसके निष्पादन के लिए अग्रसर होते रहेगें ।
डॉ. चतुर्भुज संयुक्त परिवार के पोषक थे । उनकी मान्यता थी-संयुक्त परिवार खुशियों का खजाना है, दुख कम, औरउसे बर्दाश्त करने की क्षमता प्रदान करता है । लेकिन, एकल परिवार में खुशियाँ कम और दुख झेलने में नदी का किनारा भीओझल प्रतीत होता है । उनके साथ मिल-बैठ कर कभी बातों का सिलसिला चलता था तब कभी ठहाकों की गूँज उठती थी और कभी गम्भीरता की छाया फैल जाती थी । मैंने महसूस किया कि उनके संस्मरण अन्य रंगकर्मियों, साहित्यकारों तक भी प्रेरणा स्वरूप पहुँचनी चाहिए । मैंने उनसेअनुरोध किया एक आत्मकथा लिखने का । वे महीनों टालतेरहे । लेकिन मैं भी उन्हें छोड़ने वाला था नहीं । रोज- दिन किसी न किसी बहाने आत्मकथा लिखने के लिए उन्हें स्मरण दिलाता रहा । पता नहीं कैसेउनका मूड 1996 ई. में आत्मकथा लिखाने को हुआ । डिक्टेशन लेने के लिए मैं झटपट तैयार हो गया । कई दिनों के अन्तराल पर वे 2009 तक डिक्टेशन देते रहे । लगभग तीन सौ पृष्ठ तैयार होने पर, प्रकाशक ने पाण्डुलिपि की मांग शुरू कर दी । इसी बीच ईश्वर ने उन्हें अपने पास बुला लिया । डॉ. चतुर्भुज के निधन के दो वर्षों बाद ‘मेरी रंगयात्रा’ नाम से इस पुस्तक का प्रकाशन 2011 में दिल्ली से किया गया । इस पुस्तक में डॉ. चतुर्भुज के संघर्षमय जीवन के विभिन्न मोड़ के साथ, उनके जीवन के छुए-अनछुए पहलुओं का वर्णन किया गया है । महान नाटककार डॉ. चतुर्भुज के प्रमुख नाटक हैं-पाटलिपुत्रा का राजकुमार, कलिंग-विजय, सिकन्दर-पोरस, कालसर्पिणी, टीपू सुल्तान, रावण, मेघनाद, कंसवध्, श्रीकृष्ण, कर्ण, भीष्म-प्रतिज्ञा, बन्दकमरे की आत्मा, नदी का पानी, भगवान बुद्ध , बाबू विरंची लाल, मुद्राराक्षस, अरावली का शेर, नूरजहां, शिवाजी, सिराजुद्दौला, मीरकासिम, कृष्णकुमारी, पीरअली, झांसी की रानी, कुंवर सिंह, मोर्चे-पर, बहादुरशाह, शाहीअमानत, विजय के क्षण, बादल का बेटा, महिषासुर वध, कारागार, चतुर्भुजर चनावली (तीन खंडों में) ।
साहित्य अकादमी के ‘हूजहू’ में, डॉ0 दशरथ ओझा के ‘हिन्दी नाटक कोश’ में, ‘बायोग्राफी इन्टरनेशनल’ में, ‘एशिया पेसेपिफक हूज़ हू’ में, ‘एशियन-अमेरिकन हूजहू’ में, ‘लर्नेड एशिया’ में, तथा अनेक संदर्भ ग्रंथों में इनके नाम का और इनकीउपलब्ध्यिों का उल्लेख है । हाल में प्रकाशित ‘रेपफरेन्स एशिया’ में इनके बारे में विस्तार से उल्लेख है जिसमें एशिया के चुने हुए लगभग 1500 व्यक्ति ही हैं ।
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् ने इन्हें वयोवृद्ध साहित्यकार के रूप में सम्मानित किया है । दिल्ली में आयोजित शताब्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी सेवा के लिए इन्हें सम्मानित किया गया है । इनके अलावा कई साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्थाओं की ओर से डॉ. चतुर्भुज को सम्मान, पुरस्कार दिया जाता रहा । मीरकासिम नाटक पर डॉ. चतुर्भुज को उत्तर प्रदेश सरकार से पुरस्कृत किया गया है । केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी, राजस्थान सरकार, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय ;संस्कृति मंत्रालय , बिहार राजभाषा विभाग आदि ने इनके हिन्दी नाटकों के प्रकाशन के लिए समय-समय पर आर्थिक अनुदान दिया है ।
11 अगस्त 2009 को अपनी अस्वस्थता के कारण डॉ. चतुर्भुज ने पटना के एक निजी अस्पताल में अंतिम सांस ली ।

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