सरकार पहले तीनों नए कानून वापस ले, नया मसौदा तैयार करे फिर चर्चा हो: किसान नेता

हरि वर्मा
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7 को सबका साथ। 8 को बंद। 9 को ‘नो’। सरकार और किसान संगठनों के बीच बढ़ते गतिरोध की पटकथा अभी इसी ओर इशारा कर रही है।
7 दिसंबर को किसान जत्थेबंदियों को 18 विपक्षी दलों व श्रमिक संगठनों का साथ मिला। सरकार भी एमएसपी की लिखित गारंटी के साथ कई मुद्दों पर नरम पड़ी।
इसलिए 7 दिसंबर को किसानों को सबका साथ मिला। 8 दिसंबर को किसान जत्थेबंदियों ने भारत बंद बुलाया जिसे अब तक 18 विपक्षी राजनीतिक दलों के अलावा 10 श्रमिक संगठनों व शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का समर्थन हासिल है। 9 दिसंबर को सरकार और किसान जत्थेबंदियों के बीच फिर छठे दौर की वार्ता प्रस्तावित है।
बातचीत से पहले सरकार की ओर से कई मुद्दों पर नरमी , लेकिन नए तीनों कृषि कानूनों को वापस न लेने के संकेत हैं। दूसरी तरफ, किसान जत्थेबंदियां भी जिद पर अड़ी हैं कि जब तक तीनों नए कानून वापस नहीं ले लिए जाते, तब तक और मुद्दों पर बात नहीं बनने वाली।
बातचीत से पहले सरकारी तरफ से गतिरोध की पटकथा लिख दी गई है। कानून वापस लेने पर उधर सरकार ना कहेगी और कानून वापस लिए बगैर बाकी मुद्दों पर आगे की चर्चा से किसान जत्थेबंदियां ना करेंगी यानी नो का मतलब ‘डेडलॉक’ की ओर इशारा। इस बीच सियासी फसलें लहलहाने की कोशिशें भी।
इसका कारण है कि सरकार को अडानी अंबानी आदि कारपोरेट घरानों के पक्ष में यह कानून बना चुकी है। चुनाव के लिए उनसे हजारों करोड़ों रुपए भी ले चुकी है । अब उनको फायदा पहुंचाना है। अदानी अंबानी के पक्ष में बनाए गए कानून को कैसे वापस लिया जाए, सरकार इसी धर्म संकट में है । सरकार किसी भी सूरत पर अपने पिताजी अडानी अंबानी को नाखुश नहीं कर सकती है । अब यदि इस कानून के वापसी होगी तो उसे अपने आकाओं को खुश करने के लिए कुछ नया काम, नया फैसला करना पड़ेगा ।
इसी को लेकर माथापच्ची जारी है, वैसे किसान आंदोलन में फूट डालने और उसे कुचलने की रणनीति पर भी 10 दिसंबर से अमलीजामा पहनाया जाएगा।

फ्लैश बैकः

किसान आंदोलन की पटकथा और अंतर्कथा के लिए फ्लैशबैक पर गौर जरूरी है। दो दशक पहले पंजाब के बठिंडा जिले के जेठुके गांव में ग्रामीण बस किराया विवाद से जुड़े दो रुपये के विवाद में जेठुके किसान आंदोलन हुआ था। तब वहां प्रकाश सिंह बादल की अकाली सरकार थी और पंजाब की निजी परिवहन व्यवस्था पर कई अकाली नेताओं की पकड़। भारतीय किसान यूनियन एकता (उगराहा) के झंडा सिंह जेठुके की अगुवाई में न केवल सड़क जाम आंदोलन कई हफ्तों तक चला वरन जब प्रशासन ने बल प्रयोग किया तो वे रेल पटरी जा डटे। ट्रेनों का परिचालन रोक दिया गया। अंततः प्रशासनिक फायर‌िंग में दो आंदोलनकारियों को जान गंवानी पड़ी। तब आंदोलन और बड़ा हो गया। अंततः सरकार और निजी परिवहन तंत्र को बैकफुट पर आना पड़ा। आज भाकियू एकता उगराहा गुट के वही झंडा सिंह जेठुके अपने साथियों सिंघाड़ा सिंह व अन्य के साथ दिल्ली-एनसीआर बॉर्डर पर कृषि कानून के खिलाफ जुटे हैं। इसी तरह, करीब 32 साल पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश से महेंद्र सिंह टिकैत को दिल्ली जाने से तत्कालीन दिल्ली सरकार नहीं रोक पाई थी और किसानों ने टिकैत के नेतृत्व में बोट क्लब पर कब्जा जमा लिया था। हुक्का गुड़गड़ाने वाले महेंद्र सिंह टिकैत ने एक तरह से दिल्ली की राजीव गांधी की सरकार का हुक्का-पानी बंद कर दिया था। आज टिकैत के बेटे राकेश टिकैत भी इस किसान आंदोलन का हिस्सा हैं।

ग्राउंड जीरोः

दिल्ली-एनसीआर के बॉर्डर हों या पंजाब के शहर, हालात एक जैसे हैं। पंजाब के आंदोलन स्थलों पर कंवर ग्रेवाल के खिच ले जट्टा खिच तैयारी, हुन फसलां दे फैसले किसान करुगा के गीत गाए जा रहे हैं। किसान संगठन पिंड-पिंड (गांवों) तक यह संदेश पहुंचा चुके हैं कि यह जमीन की नहीं, जमीर की लड़ाई है। वजूद की लड़ाई किसान लड़ रहे हैं, किसान संगठन और सियासी दल। आंदोलन के चलते पिछले दो-ढ़ाई महीने से पंजाब के सभी टोल प्लॉजा पर मुफ्त आवाजाही हो रही है। रेल पटरी से आंदोलनकारी किसान भले स्टेशन परिसरों के बाहर आ गए लेकिन पंजाब में एक निजी कंपनी के सभी पेट्रोल पंपों और शॉपिंग स्टोर्स में बिक्री महीनों से बंद है। इस आंदोलन में पंजाब की 32 किसान जत्थेबंदियां जुटी हैं। पंजाब के अलावा हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान से मिले समर्थन के बाद संयुक्त संघर्ष कमेटी में और किसान संगठन जुड़ते जा रहे हैं।
अभी सरकार से पांच दौर की हुई बातचीत में 40 किसान संगठनों के नुमाइंदे शामिल हो चुके हैं। भले किसानों का यह आंदोलन पूरी तरह से पंजाब के बाद अब हरियाणा, राजस्थान, यूपी के पश्चिमी हिस्से में पसर गया है लेकिन इस आंदोलन को विदेशों कनाडा, ब्रिटेन, अमेरिका, लंदन से समर्थन मिल रहा है। देश के अन्य सूबे से इस आंदोलन को खुला समर्थन मिलने लगा है। दरअसल, पंजाब के हर शहर या गांव का कोई न कोई (एनआरआई) विदेश से जुड़ा है।

गतिरोधः

किसान जत्थेबंदियों के दिल्ली कूच में कृषि कानूनों के विरोध का मंसूबा तो था लेकिन वे अपनी 30-33 मांगों में न्यूनत्तम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की देश भर में गारंटी के अलावा बिजली 2020, पराली-पर्यावरण कानून में एक करोड़ तक के जुर्माना प्रावधान, विवादों के एसडीएम दायरे से न्यायालयी निपटारे, मंडियों में निजी पार्टियों के प्रवेश पर नकेल जैसे 8-10 बड़े बिंदुओं पर समझौते के पक्षधर थे। सरकार किसान संगठनों की इन मांगों पर नरम रवैया अख्तियार करती गई लेकिन पांच दौर की बातचीत में देर के चलते लगातार बढ़ते समर्थन से आंदोलनकारियों के हौंसले बुलंद होते गए।
अब सरकार के साथ किसान और विपक्षी दलों की भी नजर 8 दिसंबर के भारत बंद पर टिकी हैं। इससे पहले सरकार की ओर से लगातार बैठकों के बाद यह संकेत दिए जा रहे हैं कि कानून वापस लेने की बजाए सरकार संशोधनों के लिए सहमत है। एमएसपी पर भी नरम रुख के साथ लिखित गारंटी देने को तैयार है। लेकिन अब किसान संगठनों की दो टूक है- जब तक तीनों कृषि कानून वापस नहीं ले लिए जाते, तब तक कोई समझौता या संशोधन नहीं।
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क्या कहते किसान नेताः

भाकियू क्रांतिकारी के डॉ. दर्शन पाल का दो टूक कहना है कि नए कृषि कानून को वापस लिए बगैर सरकार का कोई संशोधन मंजूर नहीं। उनका कहना है कि सरकार पहले तीनों नए कानून वापस ले। नया मसौदा तैयार करे। उस पर चर्चा हो।
सहमति के बाद फिर उसे लागू किया जाए। डा. दर्शन पाल को भी 9 दिसंबर की बातचीत से अब बहुत आस नहीं है। वह बताते हैं कि पांचवें राउंड की बातचीत में ‘डेडलॉक’ की स्थिति बन गई। सरकार ने खुद कहा कि 7 तारीख को वह अगले प्रस्ताव की जानकारी देगी।
इस बीच किसान जत्थेबंदियों की आपस में मंत्रणा जारी है। 9 दिसंबर की बातचीत में शामिल होने के बाद आगे की रणनीति तय की जाएगी। भाकियू एकता उगराहा के झंडा सिंह जेठुके का कहना है कि सरकार कोरोना का डर दिखा रही है। कुछ परचे (एफआईआर) दर्ज कर सकती है लेकिन काले कृषि कानून से मरने से तो बेहतर है संघर्ष। भाकियू एकता डकौंदा के बूटा सिंह बुर्जगिल भी तीनों कानून वापसी के हिमायती हैं। भाकियू टिकैत के राकेश टिकैत तो किसानों के राजपथ परेड की बात लगातार कर रहे हैं।
उधर, सरकार की ओर से भी बार-बार यही संदेश दिया जा रहा है कि सरकार संशोधन को तैयार है, कानून वापस लेने को नहीं। सरकार चाणक्य नीति अपनाकर और बातों की जाल किसानों को फंसा कर आंदोलन को नष्ट भ्रष्ट करने की योजना पर काम करने लगी है।

अंदर की बातः

दरअसल, किसानों के मन-मिजाज को सरकार भांप नहीं पाई लेकिन किसान नेताओं ने सरकार की मंशा को भांप लिया। सरकार ने बातचीत की शुरुआत में सभी जत्थेबंदियों को चुन‌िंदा पांच-सात नेताओं की कमेटी बनाकर उनसे बात करने का प्रस्ताव रखा। किसान जत्थेबंदियां चंद की बजाए सभी जत्थेबंदियों के नुमाइंदों से बातचीत पर राजी हुईं। अंदर की बात यह है। इस आंदोलन की शुरुआत में नए कृषि कानूनों के खिलाफ अजमेर सिंह लखोवाल ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दी थी।
इस पर किसान जत्थेबंदियों ने अजमेर सिंह लखोवाल को संघर्ष से द‌रकिनार कर दिया। लखोवाल अकाली दल के हिमायती माने जाते हैं। भाकियू राजेवाल के बलवीर सिंह राजेवाल कांग्रेस हिमायती तो दिल्ली-एनसीआर को जीरकपुर से जोड़ने वाले शंभु बॉर्डर पर दीप सिद्धू की अगुवाई में जो मोर्चा है, उनका सन्नी देयोल से नाता है। इसलिए भाजपा से भी रिश्ता जुड़ जाता है। यह तो रही पंजाब के किसान नेताओं और जत्थेबंदियों के मन-मिजाज की बात।
अब यूपी की बात। पंजाब की जत्थेबंदियों ने जब दिल्ली चलो का नारा दिया तो संयुक्त संघर्ष समिति के संयोजक वीएम सिंह ने अपील कर दी कि कोरोना के चलते दिल्ली आने की बजाए अपने-अपने घरों (राज्य) से ही विरोध करें। इस पर संघर्ष समिति ने उनसे भी किनारा कर लिया। गृह मंत्री की अपील पर बुराड़ी मैदान पहुंचने का फैसला भी एकतरफा रहा। सैती भी अलग-थलग पड़ गए। सरकार को लगा कि पांच-सात चुनिंदा शिष्टमंडल की बात पर किसान जत्थेबंदियों में असहमति की स्थिति बन जाएगी। इसके उलट संयुक्त संघर्ष कमेटी में अब राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के आंदोलनकारी किसान नेताओं ने भी जगह बना ली। नए नए जिलों के हजारों किसानों की एकजुटता रोज बनने लगी है। पंजाब के उगराहा और डकौंदा गुट के प्रतिनिधि के अलावा यूपी के राकेश टिकैत और राजस्थान के किसान नेता भी बातचीत का हिस्सा हो गए।
ऐसे में पंजाब की किसान जत्थेबंदियां खुद किसी कीमत पर एक कदम भी पीछे हटने को राजी नहीं। पंजाब के ज्यादातर किसान नेताओं का संघर्ष से पुराना रिश्ता रहा है, चाहे व किसान-आढ़ती आंदोलन हो या नक्सल-जनवादी आंदोलन। यह भी कारण है कि किसानों से जुड़े इन मसलों में एक मांग जनवादी लेखकों पर दर्ज मामले हटाने से भी जुड़ी है। यह मांग सोची समझी रणनीति का हिस्सा रही, जिसके परिणामस्वरुप अब सुरजीत सिंह पातर और बिजेंदर सरीखे लेखक-खिलाड़ियों की अवार्ड वापसी का सिल‌सिला शुरू हो गया है।

सियासी फसलः

यूं तो अवार्ड वापसी अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल ने भी कर दी। पहले इसी किसान बिल की तारीफ करने वाली हरसिमरत कौर मोदी कैबिनेट से अलग हो गईं। अब बादल की देखादेखी ढींढ़सा ने भी अवार्ड वापसी की बात की। बादल परिवार की इस राजनीतिक मजबूरी की बड़ी वजह यह है कि उनके मालबा क्षेत्र से ही पंजाब की शीर्ष पांच किसान जत्थेबंदियां आती हैं। भाकियू उगराहा गुट की पूरे मालबा में जमीनी पकड़ है। भाकियू डकौंदा का मालबा के 12-13 जिलों में दबदबा है। किसान संघर्ष समिति पन्नू गुट भले अमृतसर से जुड़ा है लेकिन बॉर्डर अबोहर, फिरोजपुर, फाजिल्का में जनाधार है। कदियां गुट की मांझा में पैठ है। सियासी दौर में कृषि कानून के मुद्दे पर कांग्रेस के कैप्टन अ‌मरिंदर आगे निकल गए। उन्होंने न केवल इस पर विधानसभा में विरोध प्रस्ताव लाया बल्कि पंजाब के किसान आंदोलनकारियों पर कोई प्रशासनिक रोकटोक नहीं की। दिल्ली की केजरीवाल की आप सरकार को भी किसान आंदोलन के समर्थन से पंजाब में अपनी पार्टी के विस्तार की उम्मीद दिखी, सो उन्होंने भी अमरिंदर पर वार किए और खुद दिल्ली बॉर्डर पहुंचकर समर्थन दिखाया। देखादेखी अब तक कम से कम 18 दलों ने भारत बंद को समर्थन दे दिया है।
केंद्र की भाजपा सरकार ने आंदोलनकारी किसानों के साथ खड़े दलों खासतौर से कांग्रेस,एनसीपी, सपा आदि को लेकर सवाल उठाए हैं। कांग्रेस के घोषणा पत्र का हवाला दिया है। किसान जत्थेबंदियों को इनके समर्थन का कितना लाभ मिलेगा, यह तो भविष्य तय करेगा लेकिन सभी दलों ने किसान आंदोलन की खेत में अपनी राजनीतिक फसल लहलहाने की उम्मीद पाल रखी है। किसान जत्थेबंदियों को मिल रहे ताबड़तोड़ समर्थन से सत्ता पक्ष घबराने लगा है ‌।

किसान जत्थेबंदियों का भी जनाधार

आंदोलनकारी किसान जत्थेबंदियों के लिए यह आरपार की लड़ाई है। अमूमन प्रभावी जत्थेबंदियों के एक गांव में 10-20 सक्रिय सदस्य होते हैं। वे आंदोलन में शारीरिक-आर्थिक-उपज की मदद देते रहते हैं। अब आंदोलन के प्रभावी होने से उनकी सदस्यता के साथ-साथ मदद बढ़ेगी। आंदोलन में शहरी के अलावा आढ़तिये भी आर्थिक तौर पर मदद करते हैं।
अभी पंजाब में जमीन का प्रति एकड़ 60 हजार ठेका है। जब कॉरपोरेट घराने आ जाएं तो संभव है ठेका एक लाख प्रति एकड़ तक हो जाए लेकिन पांच एकड़ से कम वाले किसानों व माली हालत कमजोर हो जाएगी। किसानों को अब भी आढ़तियों का ही आसरा है। एक फसल उपजाते, लाकर आढ़तियों को थमा देते और दूसरी फसल के लिए कर्ज ले जाते। किसानों और आढ़तियों के बीच यह सिलसिला जारी रहता। जब भी आढ़ती-किसान विवाद होता, तो जत्थेबंदियां ही उनका निपटारा कराती हैं। आंदोलन को किसानों के साथ-साथ अप्रत्यक्ष तौर पर आढ़तियों का समर्थन हासिल है। इन दोनों के वजूद के बीच किसान जत्थेबंदियां भी जनाधार की लड़ाई लड़ रही हैं। पंजाब के गांवों में किसानों में समझ बनी है कि यही नौबत रही तो पंजाब बिहार बन जाएगा। बिहार की तरह यहां के छोटे किसान भी दूसरों के यहां जाकर या तो मजदूरी करेंगे या नौकरी। कॉरपोरेट जमीन हथिया लेगी।
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पंगा क्यों

जिन कृषि कानूनों पर पंगा है,
उसकी बुनियाद मोदी पार्ट वन की सरकार में रखी गई थी। 2016 में मोदी सरकार ने किसानों की आमदनी दोगुनी करने पर दिखावटी चर्चा शुरू की। अक्तूबर 2017 में नीति आयोग की पहली बैठक दिल्ली में हुई। इसमें किसान नेताओं के अलावा राजनीतिक दलों व निजी कंपनियों के सीईओ भी शामिल हुए थे। तब पंजाब से कांग्रेस हिमायती भाकियू राजेवाल के बलवीर सिंह राजेवाल, राजस्थान से रामपाल जाट, महाराष्ट्र से विजय देवन शामिल हुए थे। निजी कंपनी के सीईओ ने निवेश के ल‌िए हामी भरी थी। निजी कंपनियों को खरीद में शामिल कराने के पीछे सरकार की पहली मंशा तो यह थी कि वह जरूरत की खरीद का हिस्सेदार हो लेकिन अतिरिक्त खरीद व भंडारण से मुक्त हो। मोदी पार्ट वन में शांता कुमार की अगुवाई में बनी कमेटी ने एफसीआई के विनिवेश की सिफारिश की। कमीशन कॉस्ट एग्रीकल्चर कमेटी (सीएसी) ने अनाज के भंडारण को जरूरत से काफी ज्यादा बताया।
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किसानों की जीवटता में वृद्धि, खुदकुशी में कमी :

नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक 2012-13 में किसानों की प्रति माह आमदनी 6424 रुपये थी।
इसके बाद के तीन वर्षों की नाबार्ड रिपोर्ट के मुताबिक, किसानों की आमदनी में करीब 40 फीसदी तक का इजाफा हुआ और प्रत‌ि माह आय 8931 रुपये हो गई।
नीति आयोग ने 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने के लिए 10.4 फीसदी कृषि विकास दर को जरूरी बताया है।
इस समय देश में 2 हेक्टेयर वाले किसान 86 फीसदी हैं, 2 से 10 हेक्टेयर वाले 13 फीसदी और 10 हेक्टेयर से ज्यादार वाले 0.6 फीसदी हैं।
इसी तरह 2012 की तुलना में 2019 आते-आते किसान-खेतिहर मजदूरों की खुदकुशी के मामलों में भी कमी आती गई। खुशहाल पंजाब में किसानों की खुदकुशी थमी और महाराष्ट्र नंबर वन पर पहुंच गया। वर्ष 2012 में देश में 13,754 किसानों-खेतिहरों ने खुदकुशी की।
2014 में यह आंकड़ा 12,360, 2015 में 12,602, 2016 में 11,379 और 2018 में 10,349, 2019 में यह घटकर 10,281 है। किसानों की जीवंतता, जीवटता का ही परिणाम है की खुदकुशी की घटनाओं में निरंतर कमी आती गई।

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