वरिष्ठ पत्रकार राजन किशोर झा की स्मृतियों में सच्चिदानंद झा
बिहार की पत्रकारिता के अपने वक्त के सिरमौर रहे पत्रकार सच्चिदानंद झा नहीं रहे।
आज सुबह काल ने पत्रकार सच्चिदा जी को हमसे छीन लिया और उनकी पुण्यात्मा अनंत में विलीन हो गई। मेरी और सच्चिदा की पहली मुलाकात वर्ष 85 के प्रारंभ में हिंदी दैनिक पाटलिपुत्र टाइम्स के दफ्तर में हुई थी। तब सच्चिदा वहां स्टाफ रिपोर्टर थे जबकि मैं वहां पहले पन्ने का उपसंपादक था। तब पन्ना तैयार करने के लिए ब्रोमाइड पर बनी खबरों को काट कर पन्ने पर चिपकाना होता था। जब मैं यह कार्य करवा रहा होता था तो सच्चिदा मेरे पीछे खड़ा मेरे कार्यों की समाप्ति का इंतजार कर रहा होता था। क्योंकि हम साथ ही घरों को लौटा करते थे। तब नियम यह था कि यदि किसी रिपोर्टर द्वारा बनाई गई खबर चिपकाने की योजना से लंबी होती तो उसे नीचे से काट दिया जाता था। जब कभी मैंने सच्चिदा की बनाई खबर को कटवाने का कार्य किया तो बदले में सच्चिदा से धारा प्रवाह गालियां सुनी। मैं भी गालियों के जवाब में मुखर हो जाता और आप कह सकते है कि हम दोनों में एक छोटा_ मोटा झगड़ा हो जाया करता था फिर भी हम दोनों एक ही स्कूटर पर लौटते साथ ही थे। जब पाटलिपुत्र टाइम्स बंद हुआ तो सच्चिदा अंग्रेजी समाचार पत्र टाइम्स आफ इंडिया में चले गए और फिर वे और किसी संस्थान में नहीं गए। अंत में वे टाइम्स आफ इंडिया के सिटी एडिटर के पद से रिटायर हुए। पत्रकारिता में ईमानदारी किसे कहते हैं,यह कला सच्चिदा से सीखने की चीज थी,मैंने अपनी पूरी पत्रकारिता के जीवन में उससे ईमानदार पत्रकार दूसरा नहीं देखा। उसने ईमानदारी के नियमों का इतनी कठोरता से पालन किया कि अधिकांश साथी उनकी इस अदा से घबराते ही रहे। यही हाल उनके सामने पड़ने वाले अधिकारियों और नेताओं का भी होता था। राजनीतिज्ञों को उसकी गालियां पसंद नहीं थी सो सरकार चाहे किसी दल की रही हो , सच्चिदा को एम एल सी इत्यादि बनाने का ख्याल किसी मुख्यमंत्री या दलों के नेताओं को नहीं आया। सच्चिदा को इसका कोई अफसोस भी नहीं था। वो जीवन भर सत्य पर टिके रहे।
उनकी सच्ची ईमानदारी वह इकलौती वजह थी जिसकी वजह से टाइम्स आफ इंडिया प्रबंधन ने उन्हें केवल एक साल का सेवा विस्तार दिया और एक अति योग्य पत्रकार घर भेज दिया गया। सच्चिदा की सदैव यह ख्वाहिश थी कि वो अपना एक अखबार जरूर निकालेगा।सो घर पर बैठ कर गप लड़ाने की जगह उन्होंने खबरों का एक पोर्टल खोला और पीर,भिश्ती,बावर्ची अर्थात पोर्टल का सारा काम खुद करने लगे। ऐसा करते वक्त वो अपनी आयु भूल गए।वो सुबह लैपटाप पर बैठते और देर रात तक खबरें बनाते रहते सो भी साल के 365 दिन।मैंने मित्र के नाते उन्हें इस कठोर साधना से रोकने की भरपूर कोशिश की और बदले में हमेशा की तरह उसकी गालियां खाई। उनकी इस साधना का अंत हुआ ब्रेन स्ट्रोक से।पिछले साल उन्हें इस बीमारी ने घेरा। उस समय उनकी जान तो बच गई पर उनकी यादास्त जाती रही। पूरा जीवन एक योद्धा सा था सो उन्होंने जीवन से भरपूर संघर्ष किया। पिछले एक साल से ज्यादा समय से वे जीवन से संघर्ष करते रहे और आखिरकार आज सुबह जीवन में पहली बार वो जंग हार गए और अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पड़े।इसी के साथ सच्चिदाज़ी की बेहद ईमानदार पत्रकारिता की यात्रा का अंत हो गया। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे।इसके अलावा और क्या कहा जा सकता है।